ज्ञान का गौरवशाली इतिहास : नालंदा विश्वविद्यालय के बारे में रोचक तथ्य
नालंदा विश्वविद्यालय प्राचीन भारत की एक अमिट छाप है। यह सिर्फ एक विश्वविद्यालय नहीं, बल्कि ज्ञान का केंद्र, शिक्षा का मंदिर और विभिन्न संस्कृतियों का संगम स्थल था। आज हम नालंदा विश...

रोचक तथ्य Last Update Sun, 20 October 2024, Author Profile Share via
नालंदा विश्वविद्यालय का प्रारंभिक इतिहास:
नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना का सटीक समय अज्ञात है, लेकिन माना जाता है कि इसकी शुरुआत 5वीं शताब्दी ईस्वी पूर्व में हुई थी। यह मगध साम्राज्य के अधीन बिहार में स्थित था। गुप्त साम्राज्य के शासनकाल (लगभग 4वीं से 6ठी शताब्दी ईस्वी) में नालंदा को विशेष रूप से राजशाही का संरक्षण प्राप्त हुआ और यह ज्ञान का प्रमुख केंद्र बनकर उभरा।
नालंदा विश्वविद्यालय का स्वर्णिम युग:
7वीं से 12वीं शताब्दी ईस्वी तक नालंदा विश्वविद्यालय अपने स्वर्णिम युग में था। इस दौरान विश्वविद्यालय में हजारों छात्र अध्ययन करते थे, जिनमें भारत के विभिन्न क्षेत्रों के साथ-साथ तिब्बत, चीन, कोरिया और अन्य दूरदराज के देशों से आए विदेशी छात्र भी शामिल थे। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग और इत्सिंग ने भी नालंदा की यात्रा की और अपने यात्रा वृतांतों में इसके वैभव का वर्णन किया है।
नालंदा विश्वविद्यालय में शिक्षा पद्धति:
नालंदा विश्वविद्यालय में शिक्षा पद्धति बहुआयामी और समग्र थी। यहां धर्म, दर्शन, तर्कशास्त्र, चिकित्सा, गणित, खगोल विज्ञान, कला और साहित्य सहित विभिन्न विषयों का अध्ययन होता था। शिक्षण मौखिक परंपरा पर आधारित था, जिसमें छात्र बहस और चर्चा के माध्यम से ज्ञान प्राप्त करते थे।
नालंदा का पतन:
12वीं शताब्दी के अंत में तुर्क आक्रमणों के कारण नालंदा विश्वविद्यालय का पतन शुरू हुआ। पुस्तकालय जला दिए गए और विद्वानों को भागने के लिए मजबूर होना पड़ा। इसके बाद, नालंदा धीरे-धीरे एक महत्वपूर्ण शिक्षा केंद्र के रूप में अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त करने में असफल रहा।
नालंदा का पुनर्जीवन:
2006 में, भारत सरकार और अन्य पूर्वी एशियाई देशों के सहयोग से नालंदा विश्वविद्यालय को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया गया। नए विश्वविद्यालय का उद्देश्य प्राचीन नालंदा की विरासत को आगे बढ़ाते हुए आधुनिक शिक्षा प्रदान करना है।
नालंदा का विराट पुस्तकालय: ज्ञान का अप्रतिम भंडार
नालंदा विश्वविद्यालय की ख्याति केवल इसकी शिक्षा पद्धति तक ही सीमित नहीं थी, बल्कि इसका विशाल पुस्तकालय भी विश्व भर में प्रसिद्ध था।
नालंदा पुस्तकालय का स्वरूप:
- नालंदा पुस्तकालय को "रत्नरंजक," "रत्नोदधि," और "रत्नसागर" नामक तीन विशाल भवनों में विभाजित किया गया था।
- माना जाता है कि इन भवनों में नौ मंजिल थीं, जो उस समय के लिए एक अद्भुत वास्तुशिल्पीय उपलब्धि थी।
- पुस्तकालय में तीन लाख से भी अधिक पांडुलिपियां और पुस्तकें संग्रहीत थीं। इनमें विभिन्न विषयों जैसे धर्म, दर्शन, तर्कशास्त्र, चिकित्सा, गणित, खगोल विज्ञान, कला, साहित्य और इतिहास से संबंधित सामग्री शामिल थी।
- पुस्तकालय में ताड़ के पत्तों, भोजपत्र और चर्मपत्र पर लिखी गई दुर्लभ पांडुलिपियों का विशाल संग्रह था। इन पांडुलिपियों को सुरक्षित रखने के लिए विशेष प्रबंध किए गए थे।
नालंदा पुस्तकालय का महत्व:
- नालंदा पुस्तकालय न केवल छात्रों और शिक्षकों के लिए ज्ञान का स्रोत था, बल्कि यह विद्वानों और यात्रियों के लिए भी एक महत्वपूर्ण शोध केंद्र था।
- विश्व के विभिन्न कोनों से आए विद्वान यहां अध्ययन करने और ज्ञान का आदान-प्रदान करने के लिए आते थे।
- इस पुस्तकालय ने प्राचीन भारत की समृद्ध साहित्यिक और बौद्धिक परंपरा को संरक्षित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
नालंदा पुस्तकालय का विनाश:
- दुर्भाग्य से, 12वीं शताब्दी के अंत में तुर्क आक्रमणों के दौरान नालंदा पुस्तकालय को भारी नुकसान पहुंचा।
- माना जाता है कि आक्रमणकारियों ने पुस्तकालय को जला दिया था और आग तीन महीने तक जलती रही।
- इस अग्निकांड में लाखों की संख्या में दुर्लभ पांडुलिपियां नष्ट हो गईं, जिससे ज्ञान की एक अमूल्य धरोहर का भारी नुकसान हुआ।
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